‘संगीत’ शब्द से हम सभी परिचित हैं। आम तौर पर गायन, वादन एवं नृत्य को ही संगीत माना जाता है
वास्तविकता यह है कि संगीत एक कला है जिसका माध्यम ध्वनि एवं मौन है।
गायन का जब सन्दर्भ आता है तो एक गीत को ही संगीत का लघु कार्य माना जाता है। संगीत के सर्वमान्य तत्वों में शामिल है पिच (PITCH) अर्थात् स्वर की ऊँचाई (जिसमें MELODY अर्थात् माधुर्य एवं HARMONY अर्थात् एकरूपता) RHYTHM अर्थात् ताल एवं लय और स्वर्।
कला के रूप में जब हम संगीत की बात करते हैं तो इसमें संगीत की प्रस्तुति, समालोचना, संगीत के इतिहास का अध्ययन आदि आ जाता है। संस्कृति तथा सामाजिक सन्दर्भों के अनुसार संगीत का सृजन, प्रदर्शन, महत्व और यहाँ तक कि परिभाषा भी परिवर्तित होती रहती है। कला के रूप में संगीत को ललित कला प्रदर्शन कला एवं श्रवण कला में बाँटा जा सकता है।
संगीत को गाया-बजाया जा सकता है, सुना जा सकता है, यह किसी नाटक या फिल्म का हिस्सा हो सकता है और इसका स्वरांकन भी किया जा सकता है।
अनेक संस्कृतियों में संगीत जीवनचर्या का भाग है। प्राचीन ग्रीक एवं भारतीय दर्शन में संगीत को माधुर्य एवं एकरूपता के रूप में परिभाषित किया गया है। संगीत की प्रस्तुति अनेक उद्देश्यों से हो सकती है। आत्मिक आनन्द, धार्मिक कर्मकाण्ड या उत्सव या केवल मनोरंजन हेतु। अपरिपक्व कलाकार अक्सर संगीत अपने आनन्द के लिए सृजित करते हैं और वे धन कमाना उनका लक्ष्य नहीं होता। भारत में संगीत की उत्पत्ति का मूल स्रोत वेदों को माना जाता है। भारतीय वांगमय के अनुसार ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया।
वैदिक काल में सामवेद में मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या सामगान के अनुसार सात स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरु शिष्य परम्परा ही संगीत सीखने-सिखाने का साधन थी।
भारतीय संगीत को 3 भागों में विभाजित किया जा सकता है।
- शास्त्रीय संगीत (इसे मार्गी संगीत भी कहा जाता है।)
- उपशास्त्रीय संगीत
- सुगम संगीत।
शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख पद्धतियाँ हैं
- हिन्दुस्तानी संगीत (जो उत्तर भारत में प्रचलित हुआ)
- कर्नाटक संगीत (जो दक्षिण भारत में प्रचलित हुआ) ।
हिंदुस्तानी संगीत का आधुनिक स्वरूप मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मंदिरों में इसी कारण हिंदुस्तानी संगीत में श्रृंगार रस एवं कर्नाटक संगीत में भक्ति रस के दिखता है।
भारतीय संगीत का संक्षिप्त इतिहास
- मान्यता है कि संगीत का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ।
- इसका प्रमाण है उत्खनन में प्राप्त नृत्यांगना की कांस्य प्रतिमा, संगीत के देवता अथवा शिव की पूजा का प्रचलन ।
- इस सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक कालीन सभ्यता में संगीत की शैली में भजन एवं मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की आराधना की जाती थी।
- कालिदास, तानसेन, अमीर खुसरो ने विशेष योगदान दिया।
स्वर
संगीत के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द है ‘स्वर’। संगीत में वह शब्द जिसका कोई निश्चित रूप हो और जिसकी कोमलता या तीव्रता अथवा उतार-चढ़ाव आदि का सुनते ही सहज अनुमान हो सके, स्वर कहा जाता है।
भारतीय संगीत में स्वरों का विभाजन इस प्रकार है
षड्ज | स |
ऋषभ | रे |
गांधार | ग |
मध्यम | म |
पंचम | प |
धैवत | ध |
निषाद | नि |
एक वैज्ञानिक शोध के अनुसार इन स्वरों का आधार कंपन है। किसी वस्तु में –
- 256 बार कंपन – षड्ज
- 298/2/3 बार कम्पन – ऋषभ
- 320 बार कंपन – गांधार इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते
- 480 बार कंपन – निषाद
इससे दुगुना कंपन का अर्थ है- ऊपर का सप्तक और आधे कंपन का अर्थ है- नीचे का सप्तक। मान्यता है कि सातों स्वर पशु-पक्षियों के स्वरों से लिये गये हैं
• स–मोर, रे–गौ, ग– बकरी, म-क्रौंच, प-कोयल, ध–घोड़ा, नि–हाथी
• इन स्वरों में स और प शुद्ध स्वर हैं। शेष स्वर कोमल और तीव्र होते हैं।
• प्रत्येक स्वर दो-दो, तीन-तीन भागों में विभाजित है, जिनमें से प्रत्येक भाग श्रुति कहलाता है।
लय
संगीत में स्वर को लय में निबद्ध होना अनिवार्य है। लय भी सप्तकों के समान तीन स्तरों से गुजरती है। सामान्य लय को मध्य लय कहा जाता है। सामान्य से तेज लय को द्रुत लय एवं सामान्य से कम लय को विलम्बित लय की संज्ञा दी जाती हैं।
ताल
समय को बराबर मात्रा में बाँटने पर ताल बनती है। ताल को बार-बार दुहराया जाता है प्रत्येक बार अन्तिम टुकड़े को पूरा कर समय के जिस टुकड़े से शुरू हुआ था उसी पर आकर मिलती है। प्रत्येक टुकड़े को मात्रा कहा जाता है। संगीत में समय को मात्रा से मापा जाता है।
उदाहरणार्थ- तीन ताल में समय या लय के 16 टुकड़े या मात्रायें होती हैं। प्रत्येक टुकड़े को एक नाम दिया जाता है जिसे बोल कहा जाता है।
ताल की मात्राओं को विभिन्न भागों में विभाजित किया जाता है जिससे गाने या बजाने वाले को मालूम रहे कि वह कौन सी मात्रा पर है और कितनी मात्राओं के बाद समय पर पहुँचेगा। तालों में बोलों के छंद के हिसाब से उनके विभाग किये जाते हैं। जहाँ से चक्र दोबारा प्रारम्भ होता है उसे सम कहा जाता है। ताल में खाली व भरी दो महत्वपूर्ण शब्द हैं। जिस भाग पर बोल के हिसाब से अधिक बल देना है उस भाग को भरी कहते हैं। भरी पर ताली दी जाती है जिस पर ताली नहीं दी जाती उसे खाली कहते हैं।